24 - 02 - 88  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

वरदाता से प्राप्त हुए वरदानों को वृद्धि में लाने की विधि

सर्वशक्तियों से सम्पन्न भव का वरदान देने वाले, टेन्शन से मुक्त कर अटेन्शन खिंचवाने वाले सद्गुरू बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले

आज बापदादा अपने रूहानी चात्रक बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा बाप से सुनने के, मिलने के और साथ - साथ बाप समान बनने के चात्रक हैं। सुनने से जन्म - जन्मान्तर की प्यास मिट जाती है। ज्ञान - अमृत प्यासी आत्माओं को तृप्त आत्मा बना देता है। सुनते - सुनते आत्मायें भी बाप समान ज्ञानस्वरूप बन जाती हैं वा यह कहें ज्ञान - मुरली सुनते - सुनते स्वयं भी ‘मुरलीधर बच्चे' बन जाते हैं। रूहानी मिलन मनाने बाप के स्नेह में समा जाते हैं। मिलन मनाते लवलीन, मग्न स्थिति वाले बन जाते हैं, मिलन मनाते एक बाप दूसरा न कोई - इस अनुभूति में समाये हुए रहते हैं, मिलन मनाते निर्विघ्न, सदा बाप के संग के रंग में लाल बन जाते हैं। जब ऐसे समाये हुए वा स्नेह में लवलीन बन जाते हैं तो क्या आशा रहती है? ‘बाप - समान' बनने की। बाप के हर कदम - पर - कदम रखने वाले अर्थात् बाप समान बनने वाले। जैसे बाप का सदा सर्वशक्तिवान स्वरूप है, ऐसे बच्चे भी सदा मास्टर सर्वशक्तिवान का स्वरूप बन जाते हैं। जो बाप का स्वरूप है - सदा शक्तिशाली, सदा लाइट - ऐसे समान बन जाते हैं।

समान बनने की विशेष बातें जानते हो ना, किन - किन बातों में बाप समान बनना है? बन रहे हो और बने भी हो। जैसा बाप का नाम, बच्चों का भी वही नाम है। विश्व - कल्याणकारी! यही नाम है ना आप सबका। जो बाप का रूप वही बच्चों का रूप, जो बाप के गुण वह बच्चों के। बाप के हर गुण को धारण करने वाले ही बाप समान बनते हैं। जो बाप का कार्य, वह बच्चों का कार्य। सब बातों में बाप समान बनना है। लक्ष्य तो सभी का वही है ना। सम्मुख रहने वाले नहीं लेकिन समान बनने वाले हैं। इसको ही कहा जाता है - फालो फादर करने वाले। तो अपने को चेक करो - सब बातों में कहाँ तक बाप समान बने हैं? समान बनने का वरदान आदि से बाप ने बच्चों को दिया है। आदि का वरदान है - ‘सर्व शक्तियों से सम्पन्न भव'। लौकिक जीवन में बाप वा गुरू वरदान देते हैं। ‘धनवान भव', ‘पुत्रवान भव', ‘बड़ी आयु भव', या ‘सुखी भव' का वरदान देते हैं। बापदादा ने क्या वरदान दिया? ‘सदा ज्ञान - धन, शक्तियों के धन से सम्पन्न भव'। यही ब्राह्मण जीवन का खज़ाना है।

जब से ब्राह्मण जन्म लिया, तब से संगमयुग की स्थापना के कार्य में अन्त तक जीना अर्थात् ‘बड़ी आयु भव'। बीच में अगर ब्राह्मण जीवन से निकल पुराने संस्कारों या पुराने संसार में चले जाते हैं तो इसको कहा जाता है - जन्म लिया लेकिन छोटी आयु वाले, क्योंकि ब्राह्मण जीवन से मर गये। कोई - कोई ऐसे भी होते हैं जो कोमा में चले जाते हैं, होते हुए भी ना के बराबर होते हैं और कभीकभी जाग भी जाते हैं लेकिन वह जिंदा होना भी मरने के समान ही होता है। तो ‘बड़ी आयु भव' अर्थात् सदा आदि से अन्त तक ब्राह्मण जीवन वा श्रेष्ठ दिव्य जीवन की सर्व प्राप्तियों में जीना। बड़ी आयु के साथ - साथ ‘निरोगी भव' का भी वरदान आवश्यक है। अगर आयु बड़ी है लेकिन माया की व्याधि बार - बार कमज़ोर बना देती है तो वह जीना भी जीना नहीं है। तो ‘बड़ी आयु भव' के साथ सदा तन्दुरूस्त रहना अर्थात् निर्विघ्न रहना है। बार - बार उलझन में वा दिलशिकस्त की स्थिति के बिस्तर हवाले नहीं होना है। जो कोई बीमार होता है तो बिस्तरे हवाले होता है ना। छोटी - छोटी उलझन तो चलते - फिरते भी खत्म कर देते हो लेकिन जब कोई बड़ी समस्या आ जाती, उलझन में आ जाते, दिलशिकस्त बन जाते हो तो मन की हालत क्या होती है? जैसे शरीर बिस्तरे के हवाले होता है तो कोई दिल नहीं होती - उठने की, चलने की वा खाने - पीने की कोई दिल नहीं होती। ऐसे यहाँ भी योग में बैठेंगे तो भी दिल नहीं लगेगी, ज्ञान भी सुनेंगे तो दिल से नहीं सुनेंगे। सेवा भी दिल से नहीं करेंगे; दिखावे से वा डर से, लोकलाज से करेंगे। इसको सदा तन्दुरूस्त जीवन नहीं कहेंगे। तो ‘बड़ी आयु भव' अर्थात् ‘निरोगी भव' इसको कहा जाता है।

‘पुत्रवान भव' वा ‘सन्तान भव'। आपके सन्तान हैं? दो - चार बच्चे नहीं पैदा किये हैं? ‘सन्तान भव' का वरदान है ना। दो - चार बच्चों का वरदान नहीं मिलता लेकिन जब बाप समान मास्टर रचयिता की स्टेज पर स्थिति हो तब तो यह सब अपनी रचना लगती है। बेहद के मास्टर रचयिता बनना, यह बेहद का ‘पुत्रवान भव', ‘सन्तान भव' हो जाता। हद के नहीं कि जो दो - चार जिज्ञासु हमने बनाया, यह मेरे हैं। नहीं। मास्टर रचता की स्टेज बेहद की स्टेज है। किसी भी आत्मा को वा प्रकृति के तत्वों को भी अपनी रचना समझ विश्व - कल्याण्कारी स्थिति से हर एक के प्रति कल्याण की शुभ भावना, शुभ कामना रहती है। रचता की रचना प्रति यही भावनायें रहती हैं। जब बेहद के मास्टर रचयिता बन जाते हो तो कोई हद की आकर्षण आकर्षित नहीं कर सकेगी। सदा अपने को कहाँ खड़ा हुआ देखेंगे? जैसे वृक्ष का रचता ‘बीज', जब वृक्ष की अन्तिम स्टेज आती है तो वह बीज ऊपर आ जाता है ना। ऐसे बेहद के मास्टर रचयिता सदा अपने को इस कल्प वृक्ष के ऊपर खड़ा हुआ अनुभव करेंगे, बाप के साथ - साथ वृक्ष के ऊपर मास्टर बीजरूप बन शक्तियों की, गुणों की, शुभभावना - शुभ कामना की, स्नेह की, सहयोगी की किरणें फैलायेंगे। जैसे सूर्य ऊँचा रहता है तो सारे विश्व में स्वत: ही किरणें फैलती हैं ना। ऐसे मास्टर रचयिता वा मास्टर बीजरूप बन सारे वृक्ष को किरणे वा पानी दे सकते हो? तो कितनी सन्तान हुई? सारी विश्व आपकी रचना हो गई ना। तो ‘मास्टर रचता भव'। इसको कहते है ‘पुत्रवान भव'। तो कितने वरदान हैं! इसको ही कहा जाता है - बाप समान बनना। जन्मते ही यह सब वरदान हर एक ब्राह्मण आत्मा को बाप ने दे दिये है। वरदान मिले हैं ना। वा अभी मिलने हैं?

जब कोई भी वरदान किसी को मि्ालता है तो वरदान के साथ वरदान को कार्य में लगाने की विधि भी सुनाई जाती है। अगर वह विधि नहीं अपनाते तो वरदान का लाभ नहीं ले सकते। तो वरदान तो सभी को मिला हुआ है लेकिन हर एक वरदान को विधि से वृद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। वृद्धि को कैसे प्राप्त कर सकते, उसकी विधि सबसे सहज और सबसे श्रेष्ठ यही है - जैसा समय उस प्रमाण वरदान स्मृति में आये। और स्मृति में आने से समर्थ बन जायेंगे और सिद्धि स्वरूप बन जायेंगे। जितना समय प्रमाण कार्य में लगायेंगे, उतना वरदान वृद्धि को प्राप्त करता रहेगा अर्थात् सदा वरदान का फल अनुभव करते रहेंगे। इतने श्रेष्ठ शक्तिशाली वरदान मिले हुए हैं - न सिर्फ अपने प्रति कार्य में लगाए फल प्राप्त कर सकते हो लेकिन अन्य आत्माओं को भी वरदाता बाप से वरदान प्राप्त कराने के योग्य बना सकते हो! यह संगमयुग का वरदान 21 जन्म भिन्न रूप से साथ में रहता है। यह संगम का रूप अलग है और 21 जन्म यही वरदान जीवन के हिसाब से चलता रहता है। लेकिन वरदाता और वरदान प्राप्त होने का समय अभी है। तो यह चेक करो कि सर्व वरदान कार्य में लगाते सहज आगे बढ़ रहे हो?

यह वरदान की विशेषता है कि वरदानी को कभी मेहनत नहीं करनी पड़ती। जब भक्त आत्मायें भी मेहनत कर थक जाती हैं तो बाप से वरदान ही मांगती हैं। आपके पास भी जब लोग आते हैं, योग लगाने की मेहनत नहीं करने चाहते तो क्या भाषा बोलते हैं? कहते हैं - सिर्फ हमें वरदान दे दो, माथे पर हाथ रख लो। आप ब्राह्मण बच्चों के ऊपर वरदाता बाप का हाथ सदा है। श्रेष्ठ मत ही हाथ है। स्थूल हाथ तो 24 घण्टे नहीं रखेंगे ना! यह बाप के श्रेष्ठ मत का वरदान रूपी हाथ सदा बच्चों के ऊपर है। अमृतवेले से लेकर रात को सोने तक हर श्वाँस के लिए, हर संकल्प के लिए, हर कर्म के लिए श्रेष्ठ मत का हाथ है ही। इसी वरदान को विधिपूर्वक चलाते चलो तो कभी भी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।

जैसे देवताओं के लिए गायन है - इच्छा - मात्रम् - अविद्या। यह है फरिश्ता जीवन की विशेषता। देवताई जीवन में तो इच्छा की बात ही नहीं। ब्राह्मण जीवन सो फरिश्ता जीवन बन जाती अर्थात् कर्मातीत स्थिति को प्राप्त हो जाते। किसी भी शुद्ध कर्म वा व्यर्थ कर्म वा विकर्म वा पिछला कर्म, किसी भी कर्म के बन्धन में बंधकर करना - इसको कर्मातीत अवस्था नहीं कहेंगे। एक ही कर्म का सम्बन्ध, एक है बन्धन। तो जैसे यह गायन है - हद की इच्छा से अविद्या, ऐसे फरिश्ता जीवन वा ब्राह्मण जीवन अर्थात् ‘मुश्किल' शब्द की अविद्या, बोझ से अविद्या, मालूम ही नहीं कि वह क्या होता है! तो वरदानी आत्मा अर्थात् मुश्किल जीवन से अविद्या का अनुभव करने वाली। इसको कहा जाता है - वरदानी आत्मा। तो बाप समान बनना अर्थात् सदा वरदाता से प्राप्त हुए वरदानों से पलना, सदा निश्चिन्त, निश्चित विजय अनुभव करना।

कई बच्चे पुरूषार्थ तो बहुत अच्छा करते। लेकिन पुरूषार्थ का बोझ अनुभव होना - यह यथार्थ पुरूषार्थ नहीं है। अटेन्शन रखना - यह ब्राह्मण जीवन की विधि है। इसको भी यथार्थ अटेन्शन नहीं कहा जायेगा। जैसे जीवन में स्थूल नॉलेज रहती है कि यह चीज़ अच्छी है, यह बात करनी है, यह नहीं करनी है। तो नॉलेज के आधार पर जो नॉलेजफुल होते हैं, उनकी निशानी है - उनको नैचरल अटेन्शन रहता - यह खाना है, यह नहीं खाना है; यह करना है, यह नहीं करना है। हर कदम में टेन्शन नहीं रहता कि यह करूँ या नहीं करूँ, यह खाऊँ या नहीं खाऊँ, ऐसे चलूँ वा नहीं? नैचरल नॉलेज की शक्ति से अटेन्शन है। ऐसे, यथार्थ पुरूषार्थी का हर कदम, हर कर्म में नैचरल अटेन्शन रहता है कि क्योंकि नॉलेज की लाइट - माइट स्वत: यथार्थ रूप से, यथार्थ रीति से चलाती है। तो पुरूषार्थ भले करो। अटेन्शन जरूर रखो लेकिन ‘टेन्शन' के रूप में नहीं। जब टेन्शन में आ जाते हो तो चाहते हो बहुत काम करने वा बनने चाहते हो नम्बरवन लेकिन ‘टेन्शन' जितना चाहते हो उतना करने नहीं देता, जो बनने चाहते हो वह बनने नहीं देता और टेन्शन, टेन्शन को पैदा करता है, क्योंकि जो चाहते हो वह नहीं होता है तो और टेन्शन बढ़ता है।

तो पुरूषार्थ सभी करते हो लेकिन कोई ज्यादा पुरूषार्थ को भारी कर देते और कोई फिर बिल्कुल अलबेले हो जाते - जो होना होगा हो जायेगा, देखा जायेगा, कौन देखता है, कौन सुनता है..। तो न वह अच्छा, न वह अच्छा है। इसलिए बैलेन्स से बाप की ब्लैसिंग, वरदानों का अनुभव करो। सदा बाप का हाथ मेरे ऊपर है - इस अनुभव को सदा स्मृति में रखो। जैसे भक्त आत्मायें स्थूल चित्र को सामने रखती हैं कि माथे पर वरदान का हाथ है, तो आप भी चलते - फिरते बुद्धि में यह अनुभव का चित्र सदा स्मृति रखो। समझा? बहुत पुरूषार्थ किया, अब वरदानों से पलते उड़ते चलो। बाप के ज्ञान - दाता, विधाता का अनुभव किया, अब वरदाता का अनुभव करो। अच्छा!

सदा हर कदम में बाप को फालो करने वाले, सदा अपने को वरदाता बाप के वरदानी श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करने वाले, सदा हर कदम सहज पार करने वाले, सदा सर्व वरदान समय पर कार्य में लगाने वाले, ऐसे बाप समान बनने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का वरदाता के रूप में यादप्यार और नमस्ते।''

मुख्य महारथी भाईयों से मुलाकात

जन्म से कितने वरदान मिले हुए हैं! हर एक को अपने - अपने वरदान मिले हुए हैं। जन्म ही वरदानों से हुआ। नहीं तो, आज इतना आगे नहीं बढ़ सकते। वरदान से जन्म हुआ, इसलिए बढ़ रहे हो। पाण्डवों की महिमा कम थोड़े ही है। हरेक की विशेषता का वर्णन करें तो कितनी है! यह जो भागवत् बना हुआ है, वह बन जाये। बाप की नजर में हरेक की विशेषतायें हैं। और कुछ देखते भी नहीं देखते हैं, जानते भी नहीं जानते हैं। तो विशेषता सदा आगे बढ़ा रही है और बढ़ाती रहेगी। जो जन्म से वरदानी आत्मायें हैं, वह कभी भी पीछे नहीं हट सकती। सदा उड़ने वाली वरदानी आत्मायें हो। वरदाता बाप के वरदान आगे बढ़ा रहे हैं। पाण्डव गुप्त रहते हैं लेकिन बापदादा के दिल पर सदा प्रत्यक्ष हैं। अच्छे - अच्छे प्लैन तो पाण्डव ही बनाते हैं। शक्तियाँ शिकार करती लेकिन कमाल तो लाने वालों की है। अगर लाने वाले लायें ही नहीं तो शिकार क्या करेंगी? इसलिए पाण्डवों को विशेष अपना वरदान है। ‘याद' और ‘सेवा' का बल विशेष मिला हुआ है। ‘याद का बल' भी विशेष मिलता है, ‘सेवा' का बल भी विशेष मिलता है क्यों? उसका भी कारण है। क्योंकि जो जितना आवश्यकता के समय कार्य में आये हैं, उसको विशेष वरदान मिला हुआ है। जैसे आदि में जब स्थापना हुई तो आप पाण्डव मर्ज थे, इमर्ज नहीं थे। शक्तियाँ एग्जाम्पल बनीं और उन्हों के एग्जाम्पल को देख और आगे बढ़े। तो यह आवश्यकता के एग्जाम्पल बने। इसलिए, जितना जो आवश्यकता के समय सहयोगी बने हैं - चाहे जीवन से, चाहे सेवा से.. उनको ड्रामा अनुसार विशेष बल मिलता है। अपना पुरूषार्थ तो है ही लेकिन एकस्ट्रा बल मिलता है। अच्छा!

सेवा करने से जो सर्व आत्मायें खुश होती हैं, उसका भी बहुत बल मिलता है। जो अनुभवी आत्मायें हैं, उन्हों के सेवा की आवश्यकता है। क्योंकि जिन्होंने साकार में पालना ली है, उन्हों को देखकर के सदा बाप ही याद आता है। कभी भी आप लोग (दादियाँ) कहाँ जायेंगी तो विशेष क्या पूछेंगे? चरित्र सुनाओ, कोई बाप की बातें सुनाओ। तो विशेषता है ना। इसलिए सेवा की विशेषता का वरदान मिला हुआ है। चाहे स्टेज पर खड़े होकर भाषण न भी करो लेकिन यह सबसे बड़ा भाषण है। चरित्र सुनाकर चरित्रवान बनने की प्रेरणा देना - यह सबसे बड़ी सेवा है। तो सेवा पर जाना ही है और सेवा के निमित्त बनना ही है। अच्छा!